विभिन्न धर्मों में पाप-पुण्य को लेकर मान्यताओं की तुलना

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विभिन्न धर्मों में पाप-पुण्य को लेकर मान्यताओं की तुलना

  1. ईसाइयत- हर व्यक्ति जन्म से पापी हैं क्यूंकि सृष्टि के आदि में हव्वा (Eve) और आदम (Adam) ने बाइबिल के ईश्वर के आदेश की अवमानना की थी। इसलिए ईश्वर ने हव्वा को शाप देकर पापी करार दिया था। इस पाप से बचाने वाला केवल एक मात्र ईसा मसीह है क्यूंकि वह पापों को क्षमा करने वाला है। इसलिए केवल ईसा मसीह पर विश्वास लाने वाला ही स्वर्ग का अधिकारी होगा। इसलिए ईसा मसीह को मानो और अपने पाप से मुक्ति प्राप्त करो। क्यूंकि केवल ईसा मसीह ही मुक्ति प्रदाता है।पापों को करने से रोकने के स्थान पर ईसा मसीह पर विश्वास को अधिक महत्व दिया गया हैं। यह मान्यता एक पाखंड के समान दिखती हैं कि अगर कोई व्यक्ति कोई भी पाप कर्म न करे मगर ईसा मसीह पर विश्वास न करे तो भी वह नरक में जायेगा क्यूंकि वह जन्म से पापी हैं।

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  1. इस्लाम- पाप न करने के लिए कुछ आयतों के माध्यम से सन्देश अवश्य दिया गया है। मगर पाप को न करने से अधिक महत्व इस्लाम की मान्यताओं को दिया गया हैं। मुस्लिम समाज के लिए आचरण से अधिक महत्वपूर्ण मान्यताएं हैं। जैसे ईद की दिन निर्दोष पशुओं की हत्या करना उनके लिए पाप नहीं हैं क्यूंकि यह इस्लामिक मान्यता हैं। जैसे जिहाद के नाम पर निर्दोषों को मारना भी पाप नहीं हैं, अपितु पुण्य का कार्य हैं क्यूंकि इसके परिणाम स्वरुप जन्नत और हूरों के भोग की प्राप्ति होगी। क़ुरान के ईश्वर अल्लाह से अधिक महत्वपूर्ण पैगम्बर मुहम्मद साहिब प्रतीत होते हैं। यह मान्यता है, यह विश्वास है। इस्लाम में पाप-पुण्य कर्म से अधिक मान्यताओं को महत्व उसे धर्म नहीं अपितु मत सिद्ध करता हैं।

 

  1. वेदों में मनुष्य और ईश्वर के मध्य न कोई मुक्तिदाता हैं, न कोई मध्यस्थ हैं। मनुष्य और ईश्वर का सीधा सम्बन्ध हैं। मान्यता या विश्वास से अधिक सत्यता एवं यथार्थ को महत्व दिया गया हैं। सम्पूर्ण वेदों में अनेक मंत्र मनुष्य को पाप कर्म न करने एवं केवल पुण्य कर्म करे का सन्देश देते हैं। वेद पाप क्षमा होना नहीं मानता। क्यूंकि कर्मफल सिद्धांत के अनुसार जो जैसा कर्म करेगा वैसा फल प्राप्त करेगा। पाप क्षमा होने से मनुष्य कभी पाप क्षमा करना नहीं छोड़ेगा अपितु भय मुक्त होकर ओर अधिक पापी बनेगा। वेद मनुष्य को पाप कर्मों का त्याग करने के लिए संकल्प करने का सन्देश देते हैं। संकल्प को प्रबल बनाने के लिए वेद ईश्वर कि स्तुति प्रार्थना एवं उपासना कर आध्यात्मिक उन्नति करने का विधान बताते हैं। जितना जितना मनुष्य उन्नति करता जायेगा, पाप आचरण से विमुख होता जायेगा। उतना उतना उसके कर्म पुण्य मार्ग को प्रशस्त करेंगे। वैदिक विचारधारा में मनुष्य के कर्म सर्वोपरि है न की मान्यता, विश्वास अथवा मध्यस्ता। व्यवहारिक, क्रियात्मक एवं प्रयोगात्मक दृष्टि से केवल वेदों की कर्मफल व्यवस्था सत्य के सबसे निकट हैं।

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वेद में पाप निवारण के लिए अनेक मंत्र दिए गए हैं जिनमें मनुष्य ईश्वर से ऐसी मति, ऐसी बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना करता हैं जिससे वह केवल और केवल सत्य मार्ग पर चलता रहे और पाप कर्म से सर्वथा दूर रहे। मनुष्य इन मन्त्रों का अनुष्ठान करते हुए यह संकल्प लेता हैं की वह पाप कर्म से सदा दूर रहेगा।

 

आइये इन मन्त्रों को ग्रहण कर, उनका चिंतन मनन कर, उन्हें अपने जीवन में शाश्वत करे जिससे हमारा जीवन सफल हो जाये

 

  1. प्राणी जगत का रक्षक, प्रकृष्ट ज्ञान वाला प्रभु हमें पाप से छुडाये- अथर्वेद ४/२३/१

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2. हे सर्वव्यापक प्रभु जैसे मनुष्य नौका द्वारा नदी को पार कर जाते हैं, वैसे ही आप हमें द्वेष रुपी नदी से पार कीजिये. हमारा पाप हमसे पृथक होकर दग्ध हो जाये- अथर्ववेद ४/३३/७

 

3. हे ज्ञान स्वरुप परमेश्वर हम विद्वान तेरे ही बन जाएँ. हमारा पाप तेरी कृपा से सर्वथा नष्ट कर दे- ऋग्वेद १/९७/४

 

  1. हे मित्रावरुणो अर्थात अध्यापकों उपदेशकों आपके नेतृत्व में अर्थात आपकी कृपा से गड्डे की तरह गिराने वाले पापों से में सर्वथा दूर हो जाऊ- ऋग्वेद २/२७/५

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5.हे ज्ञानस्वरूप प्रभु आप हमे अज्ञान को दूर रख पाप को दूर करों- ऋग्वेद ४/११/६

 

6.इस शुद्ध बुद्धि से हम भगवान के भक्त बनें और पाप से बिलकुल परे चले जाएँ- ऋग्वेद ७/१५/१३

 

7.हे प्रभु तू पाप से हमारी रक्षा कर , पाप की कामना करने वाले व्यक्ति से भी दिन रात निरंतर हमारी रक्षा कर – ऋग्वेद ७/१५/१५

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8.हे मित्रा वरुणो आपके बताये हुए सत्य मार्ग से चलकर नौका से नदी की तरह पापरूपी नदी को तैर जाएँ- ऋग्वेद ७/६५/३

 

9.हे सर्वज्ञ प्रभु आप मेरी सदा रक्षा करे मुझे कभी पाप की इच्छा रखने वाले दुष्ट बुद्धि वाले मनुष्य की संगती में मत पड़ने दे.- ऋग्वेद ८/७१/७

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10.निष्पापता की उत्सुकता इस सभी मन्त्रों में प्रकट की गयी हैं. प्रभु का सर्वव्यापकता तथा सर्वज्ञान गुण पाप दूर करने में सहायक होता हैं. सर्वव्यापक प्रभु हमारे द्वारा कहीं भी किये गए पाप कर्म को जान लेते हैं और यह प्रभु की न्याय व्यस्था ही हैं की किसी भी मनुष्य द्वारा किया गया पाप कर्म उसे दण्डित करने का हेतु बनता हैं. जो जैसा करेगा वैसा भरेगा का सिद्धांत स्पष्ट रूप से ईश्वर की कर्म फल व्यस्था को सिद्ध करता हैं. मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं और उसका फल पाने के लिए परतंत्र हैं, परतंत्रता का अर्थ ईश्वर का गुलाम अथवा मनुष्य द्वारा किये जाने वाले कर्मों में बध्यता नहीं हैं अपितु पुण्य कर्म का फल सुख और पाप कर्म का फल दुःख हैं. इसलिए वेद भगवान अपने सन्देश द्वारा समस्त मानव जाति को पाप कर्म से दूर रहने का सन्देश दे रहे हैं.

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11.हे प्रभु! आप सर्वव्यापक और सर्वज्ञाता हैं .आपकी सर्वव्यापकता तथा सर्वज्ञता को जानकर हम कभी पाप में प्रवित न हो- ऋग्वेद १/१७/८

 

  1. हे ज्ञान के स्वामिन! जिसकी तुम रक्षा करते हो उसके पास कहीं से भी पाप नहीं फाटक सकता और न दुःख आ सकता हैं- ऋग्वेद २/२३/५

 

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